बुधवार, 1 अप्रैल 2009

आतंकवादियों की उत्पत्ति और हिन्दू धर्मशास्त्र

आतंकवादियों की उत्पत्ति और हिन्दू  धर्मशास्त्र




विष्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है वर्तमान भारतीय संस्कृति। 

ऐसा माना जाना कहीं से भी गलत नहीं होगा कि यही भारतीय संस्कृति इससे पहले आर्य संस्कृति के नाम से जानी जाती रही थी। 

जैसा कि विदित है संस्कृति में विभिन्न तत्व समाहित होते है, जिनसे मिलकर संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कृति के निर्माण में प्रमुख रूप से धर्म, दर्षन, रीति-रिवाज, परंपराएं, रूढ़ियां आदि शामिल माने जा सकते हैं। 

भारतीय संस्कृति में हिन्दू धर्म-दर्शन की प्रधानता है, इसलिए इस संस्कृति में धर्म-दर्षन, रीति-रिवाज, परंपराओं और रूढ़ियों में हिन्दू धर्म की झलक देखने को मिलती है। 

हिन्दू धर्म में जहां वेद-पुराण, उपनिषद् आदि का वर्चस्व रहा है, लेकिन समय के साथ इनकी धारणाओं को अब उतना महत्व नहीं मिल पा रहा है। 

अध्यात्म की दृष्टि से गीता का दर्शन भी समान रूप से भारतीय जनमानस को प्रभावित करता रहा है, जबकि हिन्दू तौर तरीके से जीवन जीने के लिए रामायण को आदर्ष के समान माना जाता रहा है। 

चूंकि हिन्दू धर्म-संस्कृति में ऋषियों का अपना एक महत्व रहा करता था। 

यही वजह रही कि उनके द्वारा स्थापित किए गए मानदंडों के अनुरूप जीवन जीने से जिंदगी में सभी ऐष्वर्यों का उपभोग कर अंत में मोक्ष प्राप्त की जा सकती है। 

हिन्दू धर्म का जीवन दर्षन यही है कि मनुष्य को अपने पुरुषार्थ द्वारा पृथ्वी पर उपलब्ध सभी भोगों को भोगकर अंत में मोक्ष प्राप्ति की कामना करनी चाहिए। मोक्ष प्राप्ति का तात्पर्य सृष्टिकर्ता द्वारा रचे गए जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति। 

देखा जाए तो पृथ्वी पर उपलब्ध सभी भोगों को भोगने के लिए मनुष्य को अनेक प्रकार के यत्न-प्रयत्न करने होते है। इन अनेक प्रकार के यत्न-प्रयत्नों को करने में कुछ धर्म के अनुरूप अर्थात जायज होते हैं और कुछ धर्म और नीति के विपरीत, मतलब यह कि वे नाजायज होते हैं। 

यही वह स्थिति है जहां हिन्दू धर्म दर्षन में अपने अर्थात् स्वयं के अतिरिक्त विधाता अथवा नियति का उल्लेख मिलता है। 

इस यूं भी कह सकते हैं कि नियति की परिकल्पना की गई है। कहने का तात्पर्य यह यह है कि मान्य मापदंडों के अनुसार जीवन जीने की जो परिकल्पना हिन्दू धर्म-दर्षन में की गई है, उसमें जायज पुरुषार्थ द्वारा जो भोग उपलब्ध हो उसे ही अपी नियति मान लेना चाहिए। 

इसकी व्याख्या इस तरह से भी की जा सकती है कि जायज तरीके से किए गए पुरुषार्थ पर जो भोग हासिल हों, उसे विधि का विधान मान लेना ही उचित होता है। कमोबेश हिन्दू धर्म-दर्षन का मूल इसे ही माना जा सकता है। 

लेकिन यदि मनुष्य द्वारा पुरुषार्थ करने में कोताही बरती जाए मतलब यह कि कोई नाजायज तरीका अपनाया जाता है तो उसे हिन्दू धर्म-दर्षन में बर्दाष्त नहीं किया जा सकता। 

कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू धर्म-दर्षन में भोगों को भोगने के वषीभूत हो यदि नाजायज पुरुषार्थ किया जाना उचित नहीं माना जाता और यही वह बिंदु है, जहां हिन्दू पुराणों में उल्लेखित ‘राक्षस’ नामक प्रजाति का प्रादुर्भाव होता है, क्योंकि यदि पुरुषार्थ करने में नाजायज तरीकों का इस्तेमाल किया जाना मनुष्य को मनुष्य की श्रेणी में न रखकर राक्षस की श्रेणी में रख देता है। 

सृष्टि में मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही दो प्रकार के मनुष्य रहे हैं, एक वे जो विधाता, ईष्वर, नियति को मानने वाले रहे अर्थात् एक प्रकार के मनुष्यों ने अपने आपको सर्वेसर्वा मानने के बजाए अपने अतिरिक्त किसी शक्ति के अस्तित्व को माना, जो इस सृष्टि का संचालन करती रही है और करती है। 

इस तरह के मनुष्यों ने पूर्वजों अथवा बुजुर्गों द्वारा निर्धारित किए गए जीवन जीने के सिद्धांतों, मानदंडों के अनुसार (हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार) अपने जीवन को जिया। 

इसी तरह दूसरे प्रकार के मनुष्य वे रहे जो अपने आपको सर्वेसर्वा मानते हुए पुरुषार्थ करते थे अर्थात् पृथ्वी पर उपलब्ध भोगों को करने में जिन्होंने जायज, नाजायज का ध्यान न रखते हुए अपने बाहुबल पर विष्वास किया और पर उपलब्ध भोगों का उपभोग किया। साथ ही जो स्वयं ही हर परिस्थिति में अपनी रक्षा करने में सक्षम रहे। 

इसे यों भी कह सकते हैं कि इन्होंने सृष्टि के संचालन में किसी भी दृश्य या अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानकर अपने भोगों के लिए पुरुषार्थ किया। 

हिन्दू धर्म-दर्शन में इस तरह के लोगों को मनुष्य की संज्ञा दी गई जबकि दूसरे तरह के लोग (जो किसी भी दृश्य या अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानने वाले रहे) राक्षस की श्रेणी में रखे गए। 

हिन्दू पुराणों में उल्लेखित राक्षस शब्द का व्याकरण के अनुसार अर्थ होता है अपनी रक्षा करन वाला। रावण को सर्वकालिक और सबसे बड़े राक्षस की संज्ञा दी गई है। 

वैसे भी हिन्दू धर्मशास्त्र राक्षसों के उत्पीड़न से भरे पड़े हैं। इनके व्यवधान की गाथा के बिना किसी भी पुराण का कोई भी अध्याय पूरा नहीं हो पाया है, ठीक उसी तरह जिस तरह वर्तमान में आतंकवाद और आतंकवादियों की हरकतों की जिक्र के बिना किसी भी समाचार पत्र अथवा पत्रिका पूरी नहीं हो पाती है। 

इसे हिन्दू धर्म की विडम्बना ही कहा जाएगाा कि पुराणों आदि में उल्लेखित इन विभिन्न घटनाक्रमों का व्यावहारिक तौर पर मूल्यांकन नहीं किया गया। 

कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा पुरखों ने बता दिया उसी पर आंख बंद कर अमल करते जाने में सभी ने अपनी भलाई समझी। शायद इसी का नतीजा है कि पूरी दुनिया को आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। 

वैसे इस बात को नहीं माना जा रहा है कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में लिखी गई बातें कपोल कल्पित है। 

यहां इस बात का उल्लेख इसलिए किया गया है कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में लिखी गई बातों का समय बदलने के साथ-साथ मूल्यांकन नहीं किए जाने की वजह से ही आज पूरी दुनिया आतंकवाद और आतंकवादियों की हरकतों से रूबरू है। 

यदि इनका समय रहते व्यावहारिक मूल्यांकन कर लिया जाता तो कम से कम इन आतंकी गतिविधियों से देश-दुनिया को सामना नहीं करना पड़ता।

अगले ब्लाॅग के लिए प्रतीक्षा करें।

1 टिप्पणी:

  1. क्या आज के आतंकी ही पूर्व की देन हैं? प्रस्तुत ब्लाग से तो ऐसा ही आभास होता है।

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