शनिवार, 16 जुलाई 2022

बोस से घबरा कर अंग्रेजों ने दी थी आजादी

 

बोस से घबरा कर अंग्रेजों ने दी थी आजादी


जनरल जीडी बक्षी ने अपनी किताब बोस: एन इंडियन समुराई में इस पर विस्तार से लिखा 


जनरल जीडी बक्षी ने उनके द्वारा लिखी गई किताब बोस: एन इंडियन समुराई में इस विषय में विस्तार से लिखा है। 

जनरल जीडी बख्शी ने इस पुस्तक में ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल न्यायमूर्ति पीबी चक्रवर्ती के बीच हुई बातचीत का उद्धरण देते हुए बताया है कि 1956 में क्लेमेंट एटली भारत आए थे और तत्कालीन राज्यपाल के अतिथि के रूप में कोलकाता में रहे थे। 

गौर करने वाली बात यह है कि क्लेमेंट रिचर्ड एटली वे व्यक्ति थे, जिन्होंने 1945 और 1951 के बीच लेबर पार्टी के नेता और ब्रिटिश प्रधान मंत्री के रूप में भारत को स्वतंत्रता देने के निर्णय पर हस्ताक्षर किए थे। इसलिए उनके द्वारा बताई/कही गई बात को किसी भी तरह से नकारा नहीं जा सकता। 


अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए सुभाष चंद्र बोस की वजह से मजबूर होना पड़ा। 


वर्ष 1956 में पीबी चक्रवर्ती कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे और साथ ही पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल के रूप में भी कार्यरत थे। 

उन्होंने आरसी मजूमदार की किताब ए हिस्ट्री ऑफ बंगाल के प्रकाशक को एक पत्र लिखा। 

इस पत्र में मुख्य न्यायाधीश ने लिखा कि जब मैं कार्यवाहक गवर्नर था, तब क्लेमेंट रिचर्ड एटली, जिन्होंने भारत से ब्रिटिश शासन को हटाकर हमें स्वतंत्रता दी थी, उन्होंने भारत दौरे के समय कलकत्ता में गवर्नर के महल में दो दिन बिताए। 

उस समय मेरी अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए प्रेरित करने वाले वास्तविक कारकों के बारे में उनके साथ लंबी चर्चा हुई, जिसमें उन्होंने बताया था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए सुभाष चंद्र बोस की वजह से मजबूर होना पड़ा था। 

क्लेमेंट रिचर्ड एटली ने ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट में दिया था बयान 

इतना ही नहीं ब्रिटेन के लोगों ने भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करने पर ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर वहां के प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर दिया था। 

ब्रिटेन के लोगों ने सवाल किया कि जब हमारा देश द्वितीय विश्वयुद्ध जीत चुका था तो उस समय भारत को आजाद करने की क्या जरूरत थी? 

ब्रिटेन के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली से पूछा था कि आखिर आपने भारत को छोड़ने का निर्णय क्यों लिया, वह भी तब जब ब्रिटेन दूसरा विश्वयुद्ध जीत चुका था और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन फ्लॉप हो चुका था, ऐसे में आप (ब्रिटेन) ने भारत को अचानक विभाजित करने का फैसला क्यों किया? 

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने बताया इस वजह से किया था भारत को आजाद 


मुख्य न्यायाधीश के इस सवाल का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली ने कहा कि 25 लाख भारतीय सैनिक द्वितीय विश्वयुद्ध जीतकर लौट रहे थे। 

इस बीच कराची नेवल बेस, जबलपुर, आसनसोल जैसी कई जगहों से सैनिक विद्रोह की खबरें आ रही थी। 

सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज लगातार ब्रिटेन सेना पर दबाव बढ़ा रही थी। 

एटली ने आगे कहा कि हम जान गए थे कि अब ज्यादा दिनों तक भारत पर कब्जा बनाए रखना मुश्किल है। 

गांधी के अहिंसक आंदोलन का कोई असर नहीं 


सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व के प्रभाव से भारत में लोग राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्र के स्वाभिमान को लेकर उग्र हो रहे थे। 

अगर हम भारत को नहीं छोड़ते तो सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में और बड़ा आंदोलन हो सकता था जो ब्रिटेन को बहुत नुकसान पहुंचाता। 

हां अगर गांधी की तरह कोई अहिंसक आंदोलन होता रहता तो हम पर उसका कोई असर नहीं होता। 

ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए इस बयान के बाद यह कहना कि गांधी ने इस देश आजादी दिलाई, न सिर्फ सुभाष चंद्र बोस बल्कि आजाद हिंद फौज की कामयाबी को अनदेखा करना ही माना जाएगा। 

इसीलिए कई ऐसे लोग हैं जो देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के योगदान को नकारते हैं और आजादी का पूरा श्रेय सुभाष चंद्र बोस और अन्य कई महापुरुषों को देते हैं। 

आम जनमानस के दिमाग में यह बैठा दिया कि गांधी-नेहरू ने देश आजाद कराया था 


आजादी के लिए करीब 90 साल तक हुए संषर्घ में अनगिनत लोगों ने अपना योगदान/बलिदान दिया, लेकिन इन सभी को दरकिनार कर केवल और केवल गांधी-नेहरू द्वारा देश को आजाद कराए जाने के बारे में अब तक लोगों को जानकारी दी जाती रही है। 

लगातार इतिहास में इसे ही पढ़ाए जाने का नतीजा है कि देश के आम जनमानस के दिलोदिमाग में यह बात काबिज हो गई है कि गांधी-नेहरू ने इस देश आजाद कराया, जबकि तत्कालीन नेता इस तथ्य को जानते थे कि यह आजादी नहीं बल्कि केवल सत्ता का हस्तांतरण मात्र है इसलिए उन्होंने देश के लिए नहीं, महज अपनी सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखा। 
अब यदि अंग्रेजों द्वारा किए गए सत्ता हस्तांतरण की बात का विश्लेषण किया जाए तो यह आसानी से समझ में आ जाएगा कि इस दिन देश को आजादी नहीं मिली, बल्कि यह केवल सत्ता का हस्तांतरण मात्र था। 

अगले ब्लाॅग में पढें़ 15 अगस्त 1947 को आजादी नहीं मिली, सत्ता का हस्तांतरण और देश का विभाजन हुआ.

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

आतंकवादियों की उत्पत्ति और हिन्दू धर्मशास्त्र

आतंकवादियों की उत्पत्ति और हिन्दू  धर्मशास्त्र




विष्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है वर्तमान भारतीय संस्कृति। 

ऐसा माना जाना कहीं से भी गलत नहीं होगा कि यही भारतीय संस्कृति इससे पहले आर्य संस्कृति के नाम से जानी जाती रही थी। 

जैसा कि विदित है संस्कृति में विभिन्न तत्व समाहित होते है, जिनसे मिलकर संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कृति के निर्माण में प्रमुख रूप से धर्म, दर्षन, रीति-रिवाज, परंपराएं, रूढ़ियां आदि शामिल माने जा सकते हैं। 

भारतीय संस्कृति में हिन्दू धर्म-दर्शन की प्रधानता है, इसलिए इस संस्कृति में धर्म-दर्षन, रीति-रिवाज, परंपराओं और रूढ़ियों में हिन्दू धर्म की झलक देखने को मिलती है। 

हिन्दू धर्म में जहां वेद-पुराण, उपनिषद् आदि का वर्चस्व रहा है, लेकिन समय के साथ इनकी धारणाओं को अब उतना महत्व नहीं मिल पा रहा है। 

अध्यात्म की दृष्टि से गीता का दर्शन भी समान रूप से भारतीय जनमानस को प्रभावित करता रहा है, जबकि हिन्दू तौर तरीके से जीवन जीने के लिए रामायण को आदर्ष के समान माना जाता रहा है। 

चूंकि हिन्दू धर्म-संस्कृति में ऋषियों का अपना एक महत्व रहा करता था। 

यही वजह रही कि उनके द्वारा स्थापित किए गए मानदंडों के अनुरूप जीवन जीने से जिंदगी में सभी ऐष्वर्यों का उपभोग कर अंत में मोक्ष प्राप्त की जा सकती है। 

हिन्दू धर्म का जीवन दर्षन यही है कि मनुष्य को अपने पुरुषार्थ द्वारा पृथ्वी पर उपलब्ध सभी भोगों को भोगकर अंत में मोक्ष प्राप्ति की कामना करनी चाहिए। मोक्ष प्राप्ति का तात्पर्य सृष्टिकर्ता द्वारा रचे गए जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति। 

देखा जाए तो पृथ्वी पर उपलब्ध सभी भोगों को भोगने के लिए मनुष्य को अनेक प्रकार के यत्न-प्रयत्न करने होते है। इन अनेक प्रकार के यत्न-प्रयत्नों को करने में कुछ धर्म के अनुरूप अर्थात जायज होते हैं और कुछ धर्म और नीति के विपरीत, मतलब यह कि वे नाजायज होते हैं। 

यही वह स्थिति है जहां हिन्दू धर्म दर्षन में अपने अर्थात् स्वयं के अतिरिक्त विधाता अथवा नियति का उल्लेख मिलता है। 

इस यूं भी कह सकते हैं कि नियति की परिकल्पना की गई है। कहने का तात्पर्य यह यह है कि मान्य मापदंडों के अनुसार जीवन जीने की जो परिकल्पना हिन्दू धर्म-दर्षन में की गई है, उसमें जायज पुरुषार्थ द्वारा जो भोग उपलब्ध हो उसे ही अपी नियति मान लेना चाहिए। 

इसकी व्याख्या इस तरह से भी की जा सकती है कि जायज तरीके से किए गए पुरुषार्थ पर जो भोग हासिल हों, उसे विधि का विधान मान लेना ही उचित होता है। कमोबेश हिन्दू धर्म-दर्षन का मूल इसे ही माना जा सकता है। 

लेकिन यदि मनुष्य द्वारा पुरुषार्थ करने में कोताही बरती जाए मतलब यह कि कोई नाजायज तरीका अपनाया जाता है तो उसे हिन्दू धर्म-दर्षन में बर्दाष्त नहीं किया जा सकता। 

कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू धर्म-दर्षन में भोगों को भोगने के वषीभूत हो यदि नाजायज पुरुषार्थ किया जाना उचित नहीं माना जाता और यही वह बिंदु है, जहां हिन्दू पुराणों में उल्लेखित ‘राक्षस’ नामक प्रजाति का प्रादुर्भाव होता है, क्योंकि यदि पुरुषार्थ करने में नाजायज तरीकों का इस्तेमाल किया जाना मनुष्य को मनुष्य की श्रेणी में न रखकर राक्षस की श्रेणी में रख देता है। 

सृष्टि में मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही दो प्रकार के मनुष्य रहे हैं, एक वे जो विधाता, ईष्वर, नियति को मानने वाले रहे अर्थात् एक प्रकार के मनुष्यों ने अपने आपको सर्वेसर्वा मानने के बजाए अपने अतिरिक्त किसी शक्ति के अस्तित्व को माना, जो इस सृष्टि का संचालन करती रही है और करती है। 

इस तरह के मनुष्यों ने पूर्वजों अथवा बुजुर्गों द्वारा निर्धारित किए गए जीवन जीने के सिद्धांतों, मानदंडों के अनुसार (हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार) अपने जीवन को जिया। 

इसी तरह दूसरे प्रकार के मनुष्य वे रहे जो अपने आपको सर्वेसर्वा मानते हुए पुरुषार्थ करते थे अर्थात् पृथ्वी पर उपलब्ध भोगों को करने में जिन्होंने जायज, नाजायज का ध्यान न रखते हुए अपने बाहुबल पर विष्वास किया और पर उपलब्ध भोगों का उपभोग किया। साथ ही जो स्वयं ही हर परिस्थिति में अपनी रक्षा करने में सक्षम रहे। 

इसे यों भी कह सकते हैं कि इन्होंने सृष्टि के संचालन में किसी भी दृश्य या अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानकर अपने भोगों के लिए पुरुषार्थ किया। 

हिन्दू धर्म-दर्शन में इस तरह के लोगों को मनुष्य की संज्ञा दी गई जबकि दूसरे तरह के लोग (जो किसी भी दृश्य या अदृश्य शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानने वाले रहे) राक्षस की श्रेणी में रखे गए। 

हिन्दू पुराणों में उल्लेखित राक्षस शब्द का व्याकरण के अनुसार अर्थ होता है अपनी रक्षा करन वाला। रावण को सर्वकालिक और सबसे बड़े राक्षस की संज्ञा दी गई है। 

वैसे भी हिन्दू धर्मशास्त्र राक्षसों के उत्पीड़न से भरे पड़े हैं। इनके व्यवधान की गाथा के बिना किसी भी पुराण का कोई भी अध्याय पूरा नहीं हो पाया है, ठीक उसी तरह जिस तरह वर्तमान में आतंकवाद और आतंकवादियों की हरकतों की जिक्र के बिना किसी भी समाचार पत्र अथवा पत्रिका पूरी नहीं हो पाती है। 

इसे हिन्दू धर्म की विडम्बना ही कहा जाएगाा कि पुराणों आदि में उल्लेखित इन विभिन्न घटनाक्रमों का व्यावहारिक तौर पर मूल्यांकन नहीं किया गया। 

कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा पुरखों ने बता दिया उसी पर आंख बंद कर अमल करते जाने में सभी ने अपनी भलाई समझी। शायद इसी का नतीजा है कि पूरी दुनिया को आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। 

वैसे इस बात को नहीं माना जा रहा है कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में लिखी गई बातें कपोल कल्पित है। 

यहां इस बात का उल्लेख इसलिए किया गया है कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में लिखी गई बातों का समय बदलने के साथ-साथ मूल्यांकन नहीं किए जाने की वजह से ही आज पूरी दुनिया आतंकवाद और आतंकवादियों की हरकतों से रूबरू है। 

यदि इनका समय रहते व्यावहारिक मूल्यांकन कर लिया जाता तो कम से कम इन आतंकी गतिविधियों से देश-दुनिया को सामना नहीं करना पड़ता।

अगले ब्लाॅग के लिए प्रतीक्षा करें।